Sunday, October 5, 2014

Review of haider from a Hindu perspective.

।।ह़ैदर एक हिन्दु की नजर से।।


कभी कभी एक औसत कहानी जिसे एक पल का महत्व मिलना भी मुश्किल होता है, एक वैसी कहानी दस्तक देती है हमारे अन्तरात्मा के दरवाज़े पर, जिस दरवाज़े के पीछे हम अपने दर्द को कहिं दफ़न कर चुके होते हैं. हम भुल चुके होते हैं उस सौगंध को जो हमने खायी थी जब हम हार गये थे, जब हम भाग रहे थे अपने पुर्वजों के हाथों बनाये धर को छोड़ कर. एक औसत कहानी उस धाव को कुरेदती है, छटपटाहट होती है इस बात पर कि आज भी वो सौगंध अधूरा है. जब हमने तसल्ली दी थी अपने आप को कि हम लौटेंगे. हम जीतेंगे उस ज़मीन को जहां हमारा धर खंडहर में तबदील हो गया है.


ह़ैदर उसी कहानी का नाम है. एक कहानी जो हमें याद दिलाती है अनंतनाग की, ये कहानी बताती है कि कैसे अब वो इस्लामाबाद बन गया है. कैसे कश्यप की धरती कश्मीर में अब शैव पंथ के हर अवशेष को शरिया कानून के मुताबिक चादर में लिपटी छोटी छोटी बच्चीयों ने भुला दिया है.



ह़ैदर एक ऐसी कहानी है जहां नायक की भूमिका में वो वर्ग है जिसने मस्जिद के छत से मुवज्जिन का इस्तेमाल हमारे सामने कुछ  शर्त रखने के लिये किया था. आज भी वो शर्त गूंजते है कानों मे और कचोटते हैं मन को कि कैसे मौत और पलायन में से चुन लिया था हमनें एक आसान रास्ता. कुर्दिस्तान की महिलावों के क्लास्निकोव लिये तस्वीरें हंसती हैं हम पर कि क्या हम भी उन दो शर्तों के सामने अपनी आवाज़ नहीं उठा सकते थे, क्या हमारे उढे हुये आवाज के बाद भी ह़ैदर हिम्मत करता हमारे अस्तित्व को नकारने की.



ह़ैदर एक ऐसी कहानी है जहां कहानीकार चुत्पाह का उदाहरण हीं तो देता है जब हमें कश्मीर से बाहर धकेलने वालों के साथ खड़ा डॉक्टर बड़ी बेशर्मी से जवाब देता है कि वो जिंदगी के साथ खड़ा है. इस औसत कहानी में किरदारो ने अदला बदली कर ली है, एक बेटी का बाप पुलिसवाला तो है लेकिन वह विलेन का सहायक है, एक ऐसा विरोधाभाष जहां कर्तव्य के लिये मौत को गले लगाना ऐसा लगता है जैसे वो गद्दार हो.



ह़ैदर कहानी का खलनायक इसलिये बुरा है क्युंकि वो कौम का गद्दार है, उस कौम का जिसे अनंतनाग जैसा नाम अटपटा लगता है, वही खलनायक अपने जीवन की परवाह नहीं करता और दौड़ पड़ता है अपनी प्रेमिका को बचाने के लिये. उसके चिथड़े उड़ जाते हैं पर नायक अभी भी अपने 'जिंदगी के साथ' खड़े पिता के अंतिम ख्वाहिश को पूरा करने के लिये बंदूक उठा लेता है. नायक का सहयोगी रुह़कार नायक की मां को मानवबम बना कर जान ले लेता है फिर भी उसका ओहदा कहीं उंचा है. ऐसे विरोधाभाष से भरी ये औसत कहानी चुभती है. इसलिये नही क्युंकि कहानी हमारे पलायन और हार को तोड़-मड़ोड़ के दिखाती है, परन्तु इसलिये कि ये हमारे पलायन को दिखाती ही नहीं है. और जब ये पहलू गायब हो जाये तो पाकिस्तान के पैसे से चलने वाला आतंकवाद आजादी की लड़ाई लगने लगता है.



ह़ैदर कहानी में जहां हमारे हिन्दु अस्तित्व को कश्मीर के विचारधारा से मिटा दिया जाता है वहीं एक गाने में प्रकट होता है मार्तंड सूर्य मंदिर एक अलग किरदार में. एक मंदिर जो पंद्रह सौ साल तक सूर्य के उपासकों का तीर्थस्थल रहा, और सुल्तान बुत्शिखान को साल भर लग गये नष्ट करने में, इस कहानी में यह घर है एक विशालकाय दैत्य का जो नायक को यतीम कर देता है.



ये कहानी एक चेतावनी है उन हिंदुओं के लिये जिन्हे भागना पड़ा अपने पुर्वजों के भुमि से, कि अब समय आ गया है उस सौगंध को पूरा करने का जो हमनें खायी थी, समय आ गया है उस कश्मीर भूमि पर फिर से सूर्य ध्वज लहड़ाने का. और अगर हम इस बार भी हार गये तो कोई आश्चर्य नही होगा अगर विशाल भारद्वाज के अगले फिल्म की कहानी में श्रीनगर का नया नाम हैदराबाद हो.



फिल्म के द्रुश्य सुंदर है, कश्मीर को ऐसे ही स्वर्ग नही कहा जाता. शाहिद कपूर सूर्य मंदिर के प्रांगण में और नुक्कड़ नाटक करते हुये दमदार अभिनय करते हैं और इसकी बदौलत एक औसत कहानी दर्शकों को जगा के रख सकती है लेकिन अंत तक कुछ अच्छा देखने के इन्तजार के बाद दर्शक हाथ मलता हुआ सिनेमाहॉल से बाहर आ जाता है.







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