Tuesday, April 14, 2015

जाति! हाय री जाति

आज बाबा भीमराव अंबेदकर जी की जयंती है, इस पर बचपन की एक घटना लिख रहा हूं.

समाज में बहुत लोग हैं जो जाति के उंच नीच से उपर नहीं उठ पाये हैं, कुछ अज्ञान के कारण और कुछ नकली दंभ के कारण.
किशोरावस्था का वाक्या है, मेरे एक लंगोटिया यार की दादी का देहांत हो गया और श्राद्ध उनके पैत्रिक गांव में होना तय हुआ. मित्र ऐसा कि कहीं जाने कह दे तो मना करना भी पाप. सो हम पहुंच गये उसके गांव.
मित्र सोनार जाति का है और पिछड़ा वर्ग में गिना जाता है, ये बात अलग है कि परिवार में सभी पढे लिखे लोग हैं.
अब वहां गावं मे तीन-चार दिन रहने का मौका मिला और श्राद्ध का माहौल था तो काफी लोगों का आना जाना लगा हुआ था. एक कोठली में मिठाई, दही इत्यादी रखा गया था और उस कोठली की चाभी मुझे मिल गयी थी, कारण कई हो सकते हैं.
दूसरे दिन पूजा पाठ के लिये पंडित आये और "यहां पाच रुपया रखिये, यहां दस रुपये रखिये", के साथ कुछ पैसे लेकर अपना काम किया और चले गये. उनको देखकर "गरीब ब्राह्मण" का क्लिचे एक दम सही बैठता था.
उसके बाद आया भोज का समय. भोज में कइ पिछड़ी जातियों के लोग साथ बैठ गये और खाने लगे. और जैसे होता है, मिठाई हमेशा अंत में बांटते हैं, मेरे साथ बचपन में अक्सर ऐसा होता था कि मिठाई बंटने से पहले खाके उठ जाते और मिठाई से वंचित रह जाते.
तो वापस मिठाई बांटने का कार्यक्रम, और क्युंकि निगरानी हम कर रहे थे, तो मिठाई बांटने वाले मुझे ढूंढते थे, फिर पता चला कि मिठाई सबको नहीं मिलेगी. गांव का एक जानकार, पांत में बैठे आदमी का मूंह देख के बताता जाता और वहां मिठाई परोसी जाती. जाति का ऐसा खेल अद्भुत था. अन्य अन्य पिछड़ी जातियों के लोग आपस में छूआ छूत कर रहे थे.
एक जाति है हलखोर, ये लोग कभी मुसलमान बन गये, ऐसे गरीब कि इनको भोज के दिन न्योता नहीं होता, ये दूसरे दिन बसिया पूरी खाने आते हैं. अब आप कहेंगे कि क्युं बने मुसलमान, कहने की हिम्मत है क्या??

अंबेदकर जहां भी होंगे, रो परे होंगे.

चाभी मेरे पास थी, लेकिन पूरे प्रवास में मिठाई खाने का मन न हुआ.

"जाति! हाय री जाति !' कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला,
कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला
'जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाषंड,
मैं क्या जानूँ जाति ? जाति हैं ये मेरे भुजदंड।

'ऊपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर काले-के-काले,
शरमाते हैं नहीं जगत् में जाति पूछनेवाले।
सूत्रपुत्र हूँ मैं, लेकिन थे पिता पार्थ के कौन?
साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन।

'मस्तक ऊँचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो,
पर, अधर्ममय शोषण के बल से सुख में पलते हो।
अधम जातियों से थर-थर काँपते तुम्हारे प्राण,
छल से माँग लिया करते हो अंगूठे का दान।"



रामधारी सिंह दिनकर को पढिये और सुधरिये.
बाबा भीमराव अंबेदकर की जयंती पर एक सही कदम उठाइये.